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ब्रह्म॑णस्पते॒ त्वम॒स्य य॒न्ता सू॒क्तस्य॑ बोधि॒ तन॑यं च जिन्व। विश्वं॒ तद्भ॒द्रं यदव॑न्ति दे॒वा बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑। य इ॒मा विश्वा॑। वि॒श्वक॑र्म्मा। यो नः॑ पि॒ता। अन्न॑प॒तेऽन्न॑स्य नो देहि ॥५८ ॥

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पद पाठ

ब्रह्म॑णः। प॒ते॒। त्वम्। अ॒स्य। य॒न्ता। सू॒क्तस्येति॑ सुऽउ॒क्तस्य॑। बो॒धि॒। तन॑यम्। च॒। जि॒न्व ॥ विश्व॑म्। तत्। भ॒द्रम्। यत्। अव॑न्ति। दे॒वाः। बृ॒हत्। व॒दे॒म॒। वि॒दथे॑। सु॒वीरा॒ इति॑ सु॒ऽवीराः॑ ॥५८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:58


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्ड के (पते) रक्षक ईश्वर ! (देवाः) विद्वान् लोग (विदथे) प्रकट करने योग्य व्यवहार में (यत्) जिसकी (अवन्ति) रक्षा वा उपदेश करते हैं और जिसको (सुवीराः) सुन्दर उत्तम वीर पुरुष हम लोग (बृहत्) बड़ा श्रेष्ठ (वदेम) कहें, उस (अस्य) इस (सूक्तस्य) अच्छे प्रकार कहने योग्य वचन के (त्वम्) आप (यन्ता) नियमकर्त्ता हूजिये (च) और (तनयम्) विद्या का शुद्ध विचार करनेहारे पुत्रवत् प्रियपुरुष को (बोधि) बोध कराइये तथा (तत्) उस (भद्रम्) कल्याणकारी (विश्वम्) सब जीवमात्र को (जिन्व) तृप्त कीजिए ॥५८ ॥
भावार्थभाषाः - हे जगदीश्वर ! आप हमारी विद्या और सत्य व्यवहार के नियम करनेवाले हूजिये, हमारे सन्तानों को विद्यायुक्त कीजिये, सब जगत् की यथावत् रक्षा, न्याययुक्त धर्म, उत्तम शिक्षा और परस्पर प्रीति उत्पन्न कीजिये ॥५८ ॥ इस अध्याय में मन का लक्षण, शिक्षा, विद्या की इच्छा, विद्वानों का सङ्ग, कन्याओं का प्रबोध, चेतनता, विद्वानों का लक्षण, रक्षा की प्रार्थना, बल ऐश्वर्य की इच्छा, सोम ओषधि का लक्षण, शुभ कर्म की इच्छा, परमेश्वर और सूर्य्य का वर्णन, अपनी रक्षा, प्रातःकाल का उठना, पुरुषार्थ से ऋद्धि और सिद्धि पाना, ईश्वर के जगत् का रचना, महाराजाओं का वर्णन, अश्वि के गुणों का कथन, अवस्था का बढ़ाना, विद्वान् और प्राणों का लक्षण और ईश्वर का कर्त्तव्य कहा है, इससे इस अध्याय के अर्थ की पूर्व अध्याय में कहे अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीयुतपरमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये चतुस्त्रिंशोऽध्यायः समाप्तिमगमत् ॥३४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(ब्रह्मणः) ब्रह्माण्डस्य (पते) रक्षक ! (त्वम्) (अस्य) (यन्ता) नियन्ता (सूक्तस्य) सुष्ठु वक्तुमर्हस्य (बोधि) बोधय (तनयम्) विद्यापुत्रम् (च) (जिन्व) प्रीणीहि (विश्वम्) सर्वम् (तत्) (भद्रम्) कल्याणकरम् (यत्) (अवन्ति) रक्षन्त्युपदिशन्ति (देवाः) विद्वांसः (बृहत्) महत् (वदेम) उपदिशेम (विदथे) विज्ञापनीये व्यवहारे (सुवीराः) शोभनाश्च ते वीराः ॥५८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे ब्रह्मणस्पते ! देवा विदथे यदवन्ति, यत् सुवीरा वयं बृहद्वदेम, तस्यास्य सूक्तस्य त्वं यन्ता भव, तनयं च बोधि, तद्भद्रं विश्वं जिन्व ॥५८ ॥
भावार्थभाषाः - हे जगदीश्वर ! भवानस्माकं विद्यायाः सत्यस्य व्यवहारस्य च नियन्ता भवत्वस्माकमपत्यानि विद्यावन्ति करोतु। सर्वं जगद् यथावद् रक्षतु सर्वत्र न्याय्यं धर्मं सुशिक्षां परस्परप्रीतिं च जनयत्विति ॥५८ ॥ अस्मिन्नध्याये मनसो लक्षणं, शिक्षा, विद्येच्छा, विद्वत्सङ्गः, कन्याप्रबोधो, विद्वल्लक्षणं, रक्षायाचनं, बलैश्वर्येच्छा, सोमौषधिलक्षणं, शुभेच्छा, परमेश्वरसूर्य्यवर्णनं, स्वरक्षा, प्रातरुत्थानं, पुरुषार्थेनर्द्धिसिद्धिप्रापणमीश्वरस्य जगन्निर्माणं, महाराजवर्णनमश्विगुणकथनमायुर्वर्द्धनं विद्वत्प्राणलक्षणमीश्वरकृत्यं चोक्तमतोऽस्याऽध्यायार्थस्य पूर्वाऽध्यायोक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे जगदीश्वरा ! आम्हाला विद्या व सत्य व्यवहाराचे नियम कळू दे. आमच्या संतानांना विद्यायुक्त कर. सर्व जगाचे यथायोग्य रक्षण करून न्याययुक्त धर्म, उत्तम शिक्षण दे व परस्पर प्रेम उत्पन्न कर.